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Channel: अनुशील
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सुप्रभातं! जय भास्कर:! १२

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पापा से बातचीत :: एक अंश!

स्वंयसेवा/ सामाजिक कार्य के संदर्भ में :: एक दृष्टिकोण
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समाज को अगर कोई सचमुच सशक्त और कल्याणकारी बनाना चाहता हो तो, उसे देवाधिदेव महादेव की तरह (जैसे उन्होंने अनन्त कोटि ब्रह्मांड की रक्षा के लिए विषपान कर लिया था) समाज कल्याण के लिए, कटु वचनरूप विष को पीते हुए पारिवारिक विषम स्थिति (विशेष कर विरोधी स्वभाव वाले पारिवारिक सवारी को ही लें :: शिव की सवारी वृषभ, शिवानी की शेर, पुत्र गणेश की सवारी मूषक, कार्तिकेय का मयूर) को सम करते हुए (जैसे गज मुख पर षडानन् छःमुख वाले कार्तिकेय परिवार को नियंत्रित करने मे सफल हैं), वैसा अभ्यास हम सब को गम्भीरता से अपनाना होगा।
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सामाजिक संगठन, उनके परिचालन और उद्देश्य से सम्बंधित कुछ रैंडम थॉट्स 

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अहम्मन्यता के ही कारण एक ही शहर या कस्बे में एक एक दो दो संगठन चल रहे हैं, या एक जनसमूह ही अहंता के कारण बंट जा रहे हैं। जब समाज के संगठन का उद्देश्य समाज के सर्वांगीण विकास का ही है, तो उद्देश्य की टकराहट तो कारण नही ही है, फिर अहं को छोड़कर "सबहिं मान-प्रद आप अमानी"के फार्मूले को जननायक क्यों नहीं अपनाते।

हां हम छोटे बड़े स्थान और परिवेश के आधार पर संगठन जरूर बनायें... यह आवश्यक भी है, पर जहां ऐक्यमत और बलऐक्य प्रदर्शित करने की जरूरत हो, हमारी आपसी सहमति ऐसी होनी चाहिए कि दुर्गासप्तशति में आए शुम्भ-निशुम्भ के साथ युद्ध में राक्षस के द्वारा यह कहे जाने पर कि "अन्यासां बलमाश्रित्य युद्ध्यसे अति मानीनि", का उत्तर जगज्जननी ने दिया था, हम सब भी अपने विरूद्ध बोलने वाले को गर्व से कह सकें

"एकैवाऽहं जगदत्र, द्वितीया का ममापरा। पश्य दुष्ट! विशन्ति मामेव मम् वभूतयः।।

अर्थात् राक्षस ने कहा कि दूसरे दूसरे का सहारा लेकर लड़ रही हो (इन्द्राणी, रूद्राणी, सर्वदेवशक्तिसम्पन्ना दुर्गा, शिवानी अन्या शक्ति।) और अधिक बलशालिनी बन रही हो, इसी के उत्तर में पराम्बा जगज्जननी दुर्गा ने कहा रे दुष्ट! मेरे सिवा इस संसार में और कौन है? ये तो मेरी ही विभूतियां हैं, जो मुझ में प्रवेश कर रहीं हैं।

किसी भी संगठन के विश्वस्तरीय स्वरूप के लिए कल्याणकारी इस से बढ़कर सोच और क्या हो सकती है? हम सब पूर्वाग्रह से मुक्त हो सोचें तो सही।

जयतु भास्करः! सुप्रभातम् सर्वेषाम्! मंगलकामनासहितः प्रेषितः।


सधन्यवाद प्रेषित!
--डॉ सत्यनारायण पांडेय


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