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सुप्रभातं! जय भास्कर:! ११

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सत्यनारायण पाण्डेय 


पापा से बातचीत :: एक अंश
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श्रीमद्भगवद्गीता के सोलहवें अध्याय के छठे श्लोक मे भगवान श्री कृष्ण ने कहा है :--


द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुरएव च।


हे अर्जुन! इस लोक में भूतोंकी सृष्टि यानी मनुष्य समुदाय के दो ही प्रकार हैं:-- पहला दैवीय प्रवृत्ति वाला, दूसरा आसुरी प्रवृत्ति वाला। इसके पूर्व ही क्रमशः दैवी सम्पदा एवं आसुरी संपदा से युक्त व्यक्तियों की पहचान सर्वसाधारण के लिए सुलभ हो,भगवान श्रीकृष्ण ने दोनो के लक्षण भी स्पष्ट किए है।


देखें दैवी सम्पदा वाले व्यक्ति के लक्षण(श्लोक /3/) :--


तेजः क्षमा धृतिःशौचमद्रोहोनातिमानिता ।
भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ।।


अर्थात् :---तेज (श्रेष्ठ पुरूषों का वह प्रभाव, जिससे दुष्ट भी सद् बुध्दि वाले हो जांये) क्षमा, धैर्य, बाह्यशुद्धि एवं किसी मे भी शत्रु भाव का न होना और अपने में पूज्यता के अभिमान से रहित होना :--दैवी सम्पदा लेकर उत्पन्न हुए मनुष्य के लक्षण हैं।


पुनः आसुरी सम्पदा वाले मनुष्य के लक्षण बताते हुए कहा कि :--


दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारूष्यमेवच ।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदासुरीम् ।।


अर्थात् :---हे पार्थ! दम्भ, घमंड और अभिमान तथा क्रोध कठोरता और अज्ञान भी ---आसुरी सम्पदा को लेकर उत्पन्न हुए पुरूष के लक्षण हैं ।


अब विचारणीय यह है कि भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली यह अकाट्य और शतप्रतिशत सत्य वाणी का ध्यान यदि हम कर अपना ही मूल्यांकन ईमानदारी से कर लें तो सह अस्तित्व के भाव को समझने मे हमें सहयोग मिलेगा, और आसुरी सम्पदा वालों को दया का पात्र समझते हुए, उनसे दूरी बनाकर अपना बचाव भी कर पायेंगे, साथ ही ये आसुरी सम्पदा से युक्त ये मनुष्य तो आदत से लाचार ऐसा ही जीवन जीने को इस जन्म मे विवश हैं, यह जानते हुए उन पर दया करते हुए दैवी सम्पदा से जोड़ने का प्रयास कर पायेंगे ।


यों ईश्वर की संरचना, सृष्टि को संतुलित करने के लिए होती है, यही कारण है कि हलाहल विष के साथ अमृत को प्रकट संतुलन स्थापित किया गया, भले हलाहल को विश्वकल्याण की भावना से देवाधिदेव महादेव ने विष का अकेले पान कर लिया। 


हमें भी यथा समय परिवार, समाज, राज्य, देश ,विश्व के कल्याण की भावना से विषपान कर सबों के कल्याण के लिए कार्य करने का संकल्प लेना चाहिए ।


*** *** ***


भगवान श्री कृष्ण ने दैवी और आसुरी सम्पदा का वर्णन करते हुए कहा है कि दैव और आसुरी प्रवृत्ति का जन्म सृष्टि के आरम्भ से ही है ।


मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव ।।


दैवी भावना मुक्ति देने वाली होती है और आसुरी भाव बन्धन का कारण होता है 

दैवी सम्पद्विमोक्शाय (मोक्षाय) निबन्धाया-सुरी मता ।। 

इसी लिए (मा शुचः --आदि श्लोक की अर्धावली) में भगवान अर्जुन को स्पष्ट करते हैं कि --"हे अर्जुन! तू शोक न कर, क्योंकि तुम दैवी सम्पदा लेकर उत्पन्न हुए हो। दैवी सम्पदा की चर्चा हो चुकी है, आसुरीसम्पदा की संक्षिप्त जानकारी जन सामान्य के लिए भी जरूरी है, ताकि उस प्रवृत्ति से बचते हुए, मोक्ष का अधिकारी बन सकें, बन्धन के लिए विवश न हो। 

भगवान कृष्ण ने स्पष्ट कहा है "निबन्धायासुरीमता"आसुरी वृत्ति बंधन का कारण होती है। अतः किस प्रकार के स्वभाव और कृत्य से बचाने की कोशिश की जानी चाहिए इसे जानें :---


"काममाश्रित्य दुष्पुरं दम्भमानमदान्विताः।मोहद्गृहीत्वाअसद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः ।।अ 16 /श्लोक 10 ।।

अर्थात् (आसुरी प्रवृत्ति वाला व्यक्ति )दम्भ, मान और मद से युक्त शक्ति से अधिक बड़ी बड़ी कामना पालकर, झूठे सिद्धांतों के सहारे, भ्रष्ट आचरण करता हुआ संसार मे विचरण करते समय व्यतीत करता है।

हमे ऐसे मनोभाव से बचना चाहिए। और भी "आढ्योऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः।।
ऐसे तो कई श्लोक मे आसुरी वृत्ति की चर्चा है विस्तार के लिए मूल ग्रन्थ का अनुसरण करें, पर मुख्य भाव के लिए इन्हे देखें ---

अहंकार बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः ।

ममात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।अ16/श्लोक 18 ।।

इन (अध्याय 16 के श्लोक 10,15,18) को ही ध्यान मे रखें तो कल्याण हो जाय, तो क्रमशः अर्थ देखें :-श्लोक 15 ---"मै बड़ा धनी और बड़े कुटुंबवाला हूं । मेरे समान दूसरा कौन है? (अर्थात् कोई नहीं) मैं ही यज्ञ कर सकता हूं, दान भी केवल मैं कर सकता हूं, मेरे सिवा आमोद-प्रमोद कोई करने मे समर्थ नही हो सकता । इस तरह के अज्ञान से आसुरी प्रवृत्ति का मनुष्य मोहग्रस्त रहता है (कल्याण चाहने वाले को इससे बचना चाहिए )


श्लोक 18 :--अर्थात् "वह व्यक्ति अहंकारी, बल के घमंड वाला काम (तरह तरह की कामना वाला ) और बराबर क्रोध से भरा हुआ दूसरों की अकारण निन्दा करने वाला होता है, उसे यह भी पता नही चलता कि "इस प्रकार के व्यवहार से वह अपने और जिसके अहित में लगा है सर्वत्र स्थित मुझ अन्तर्यामी मे एक ही द्वेष का भागी बन (नर्क का भी द्वार अपने लिए ही खोल रहा है) अपना ही अहित कर रहा है! इतने को जानकर भी हम सतर्क हो जांये, तो कल्याण हो जाय।

सधन्यवाद प्रेषित! मंगलकामनासहितम्! सुप्रभातम् सर्वेषाम्! जय भास्करः!


--सत्यनरायण पांडेय


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