पापा से बातचीत :: एक अंश ----------------------------------
मोक्ष के लिए अलग से कोई जप तप करने की जरूरत नहीं पड़ती। ******
चार पुरूषार्थ कहे गए हैं :----धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। इनका जो क्रम है पहले धर्म को रखा, धर्म का अभिप्राय व्यापक है, फिर धर्म का अर्थ शास्त्र विहित कर्म, स्वार्थ रहित कर्तव्यनिर्वहन, जैसे यों समझें, जीवन यापन करने के लिए धन की जरूरत है, पर धनसंग्रह के लिए हम कोई ऐसा काम नही करेंगे जो सामाजिक दृष्टि से अनैतिक हो, इस प्रकार धर्मपूर्वक धन कमाना एवं इच्छा पूर्ति के लिए अपने पास उपलब्ध धन के अनुरूप ही खर्च करने की सोचना उचित कहा गया है, यही धर्म अर्थ और काम(कामना, इच्छा) परस्पर एक दूसरे को बाधा पहुंचाये बिना जीवन मे सफलता पूर्वक साध लिया जाता है, तो मोक्ष स्वतः सिद्ध हो जाता है, अलग से कोई प्रयास मोक्ष के लिए करने की जरूरत नहीं होती।
श्रीमद्भागवत महापुराण में मोक्ष की स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि "यदा पापापुण्यानां अभावः संजायते तदा भवति मोक्षः"शास्त्र कहते हैं अच्छे कर्म के फल पुण्य और बुरे कर्म के फल पाप कहलाता है। इस संसार रूपी बाजार में दो ही चीज बिकती है या कहें कमाई जा सकती है, अब बाजार जाने वाला सूटबूट में हो या गेरुआ वस्त्र में कोई फर्क नहीं पड़ता! फर्क किये गये कर्म से पड़ता है, किसी ने कहा है "अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्। परोपकारःपुण्याय, पापाय परपीडनम् ।।"अठारह पुराणों में निचोड़ रूप में व्यास जी ने दो बातें कहा है ::
---यदि पुण्य कमाना चाहते हो तो, दूसरे का उपकार करो, खुद कष्ट सहकर दूसरे को सुख दो । तप को समझाते हुए कहा है कि दूसरे को सुख देने के लिए सहा ताप (कष्ट ) ही तप है, न कि फ्रस्ट्रेशन में घर बार अपने परिवार माता पिता के प्रति दायित्व को छोड़ भाग खड़े होना ।
हां तो पुण्य की बात तो हो गई अब पाप को लें ---दूसरे को पीड़ा पहुंचाना ही पाप है चाहे स्वयं को छोड़कर (दूसरे परिवार के सदस्य हों या और कोई ) अन्य किसी को दुख पहुंचाना ही पाप है। यहीं ध्यान देने वाली बात यह है कि अपने कार्य इस प्रकार लगाव रहित होकर कर्तव्य पालन के तौर पर तथाकथित सभी मान्य सम्बन्धों के साथ संसार मे सम्पादित हों कि कबीर दास के शब्दों में "जस के तस धर दीन्ही चदरिया"सिद्ध हो जाय।
गीता भी कहती है "ज्ञानाग्नि दग्ध कर्माणि, तमाहुः पण्डितं बुधा:"।
अर्थात् जिसने ज्ञानरूपी अग्नि में कर्मरूपी बीज को जला दिया है, उसे ही बुद्धिमान लोग पंडित कहते हैं, न कि दायित्व से भागने वाले कायरपुरूष को।
तुलसी के रामायण लिखे जाने से पूर्व समाज की स्थिति का चित्रण करते हुए कहा गया था कि सन्यासी बनना कितना आसान था तब "नारी मुई घर संपत्ति नासी, मुड़ मुड़ाय भये सन्यासी "सन्यास है क्या? न्यास कहते हैं बंधन को, गांठ को।
न्यासेन सहितः =सन्यासः, अस्ति एतादृशो भावो यस्मिन् स सन्यासी
घर छोड़कर भाग ने वाला तो डर से भाग खड़ा हुआ, वह कौन सा सन्यासी होगा। गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कहा है --जनक से बढ़कर योगी हुआ न होगा "कर्मणैव संसिद्धिमास्थिता जनकादयः "जनक आदि बड़े बड़े योगियों ने भी संसार मे गृहस्थधर्म का पालन करते हुए मोक्ष के अधिकारी बन गए।
बात स्पष्ट है जो संन्यास और गृहस्थ धर्म का संतुलन बना एक साथ लिए चल रहा है वह क्यों भागेगा? कहां भागेगा? पर जो केवल गृहस्थ है, उसे संन्यास आकर्षित करता है और जो हठात बिना सोचे समझे सन्यासी बन जाता है, उसे गृहस्थ जीवन आकर्षित करने लगता है, यही रहस्य है, समझा सो पार नही तो जन्म मरण, आवागमन का जंजाल अपरम्पार ।
सधन्यवाद प्रेषित! मंगलकामनासहितम्! पुनः आवश्यकतानुसार दूसरे लेख में ।