पापा से बातचीत :: एक अंश
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सुप्रभातः सर्वेषाम्! मंगलकामनासहितम्! जयतु भास्करः!
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीति र्मतिर्मम।।
श्रीमद्भगवद्गीता के अठारहवें अध्याय के अन्तिम श्लोक में अपना निश्चितमत् बतलाते हुए दिव्य दृष्टि प्राप्त संजय राजाधृतराष्ट्र को कहते हैं:---हे राजन्! जहां योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहां गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन हैं, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और "अचलनीति "है! स्पष्ट है जहां श्री कृष्ण(सद् एवं दृढ़ नीति के मूर्त रूप )और गाण्डीवधारी अर्जुन(कर्तव्य के प्रति दृढ़प्रतिज्ञ) होते हैं श्री, विजय और विभूति सम्भव है क्योंकि वहीं सद् एवं अचलनीति का निवास है। अर्जुन श्री कृष्ण से प्रारंभ मे ही प्रश्न करता है कि "स्वजनं हि कथं हत्वासुखिनः स्याम् माधव!"अर्थात् अपने लोंगो की युद्ध में हत्या कर, हे माधव! श्री कृष्ण! मै कैसे सुखी हो सकता हूं? भगवान् कहते हैं मेरे पास अपने पराये का भेद नहीं, मै तो युग युग में "धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे"अवतरित होता हूं । यही पूर्ण सफलता या विफलता का राज है, पर स्वार्थी मनुष्य स्वार्थपरता की अन्धी दौड़ में कुछ भी जानने और मानने के लिए तैयार ही नहीं! आज हर कोई अपने को नियम कानून (संविधान) से ऊपर मानने का आदी हो गया है! समस्या सुलझे तो कैसे?गीता के द्वितीयमाहात्म्य में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :--"गीता आश्रये तिष्ठामि, गीता मे उत्तमं गृहम् । गीता ज्ञानमुपाश्रित्य त्रिलोकान्पाल्याम्यहम्। अर्थात् "मै गीता के आश्रय मे ही निवास करता हूं, गीता ही मेरा उत्तम गृह है, गीता ज्ञान के सहारे ही मैं तीनों लोक का पालन करता हूं ।
ध्यातव्य है गीता के गायक श्री कृष्ण गीता ज्ञान की आश्रयता में तीनों लोक का पालन करते हैं, और हम, संविधान , चाहे देश का हो, किसी छोटी बड़ी संस्था का हो, नियमावली को मानने के लिए तैयार ही नहीं। समस्या तो यहीं है, आखिर सुधार कैसे हो? अत्यंत महत्वपूर्ण, विचारणीय भी।
सधन्यवाद प्रेषित! मंगलकामनासहितम्! सुप्रभातम्! जय भास्करः!
--सत्य नारायण पाण्डेयः।