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Channel: अनुशील
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रास्ता ही मंज़िल है!

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रास्ता कहाँ ले  जाता है, इसका पता मंज़िल तक पहुँच कर ही मिलता है… इसलिए रास्तों का मज़ा लेते हुए चलना चाहिए, रास्ता अपने आप में ही एक मंज़िल होता है!  अनुभव  की सौगातें, संघर्ष के क्षण, अनिश्चितता का भाव, दूर से नज़र आते गंतव्य तक पहुँचने की ख़ुशी, यह देख थके हुए क़दमों का उत्साह के साथ गति पकड़ना- ये अनुभूतियाँ तो राहें ही देती हैं न! रास्ते में मिलने वाले पंछी तितलियाँ फूल- सभी पथ की पहचान होते हैं!



जब हम उप्साला की एकदिवसीय यात्रा पर निकले थे तो कोई विशेष प्लान नहीं था, हमने उप्साला कार्ड ख़रीदा था, इसके माध्यम से हम वहाँ के लगभग हर स्थल में  प्रवेश पा सकते थे. हमारी मंशा बस यही थी कि ज्यादा से ज्यादा जगहों पर हम जा सकें, समय और कार्ड का समुचित उपयोग करते हुए. साल भर पहले की गयी यह यात्रा यूँ तो हमें पूरी तरह याद है, मगर लिख नहीं रहे हैं सिलसिलेवार. यात्रा का लेखनयात्रा के अंतिम पड़ाव जीवविज्ञानी लिनियस के घर से शुरू किया, तो आज अब लिख रहे हैं, तो एक शिल्पकार  का घर हमें अपने विषय में लिखने को प्रेरित कर रहा है… हमारे कदम और मेरी कलम दोनों अभी ब्रोर ह्योर्थके घर में हैं. अभी हम बड़े प्यार से याद कर रहे हैं वह वक़्त और वहाँ तक पहुँचने की कहानी, आप भी सुनिये… सच, ऐसा लगेगा कि रास्ता हर वो ख़ुशी देने में सक्षम है जिसके बारे में हमने शायद कभी सोचा ही नहीं, रास्तों को सब पता है, वे सारी मंजिलों से वाकिफ़ हैं, वे देंगे हमें पेड़ों की छाँव और गंतव्य का पता भी… हमें बस इतना करना है कि चलते जाना है!

तो शुरू करते हैं कहानी: ये हमारी यात्रा के संभावित गंतव्यों में से एक नहीं था, स्टॉकहोम से आते वक़्त उपलब्ध सूचना सामग्री में बस यात्रा में किये गए सीमित रिसर्च में हम यह स्थल रेखांकित नहीं कर पाए थे… सो दूर दूर तक यह हमारी मंजिलों की सूची में नहीं था… लेकिन रास्ते जानते थे कि यहाँ हमें अवश्य जाना ही चाहिए सो रास्तों ने मिलकर ऐसा किया कि हमें थोड़ा भटका दिया. 

सुबह से घूमते घूमते दोपहर हो चुकी थी, हम उप्साला की स्थानीय बस सेवा का उपयोग कर रहे थे और जल्द से जल्द अपनी अगली मंजिल तक पहुंचना चाहते थे. थोड़ी ही देर हुई थी कि हमें आभास हुआ कि हमने गलत रुट वाली बस पकड़ ली है जल्दी में. जैसे ही यह बात स्पष्ट हुई, हम वही अगले स्टॉप पर उतर गये… और चलने लगे कि समय बहुत कम था और आगे बढ़ना ज़रूरी था… अगली सही बस का इंतज़ार करते हुए समय बिताना ठीक नहीं था. चलते हुए हम एक दूसरे से बात कर रहे थे, बात क्या दोषारोपण ही कह सकते हैं… सुशील जी का कहना था कि हमारी बकबक की वजह से वे ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाए और गलत दिशा में जाने वाली बस पर हम सवार हो गए, इसके जवाब में हमने भी उनसे काफी बहस की. अच्छा ही था ये परस्पर दोषारोपण में थके हुए क़दमों की थकन बिसर गयी थी और हम चले जा रहे थे. 



पेड़ों के बीच से झांकता हुआ एक घर मिला, यह और कुछ नहीं, यही थी हमारी अज्ञात मंजिल, जिस तक पहुँचाने का सारा श्रेय रास्तों को जाता है. हम अब एक कला संग्रहालय के बाहर खड़े थे और निश्चय किया कि अन्दर चलना चाहिए, उप्साला कार्ड के अंतर्गत ही आता था यह संग्रहालय भी सो हम अब ब्रोर ह्योर्थ के निवास स्थल में थे - स्वीडन के बीसवीं सदी के सबसे महत्वपूर्ण और लोकप्रिय कलाकार का घर जिसे संग्रहालय में परिवर्तित कर कला और कलाकार की आत्मा को बड़ी श्रद्धा के साथ जिंदा रखा गया है! ब्रोर ह्योर्थ (१८९४-१९६८) का लालन पालन प्रशिक्षण उत्तरी उप्साला में हुआ था और कालांतर में उनका प्रशिक्षण पेरिस में अन्तोइने बोर्देल की देख रेख में हुआ. ह्योर्थ ने अपने जीवन का तीसरा दशक लगभग पेरिस में ही बिताया. १९३० में वे स्वीडन लौट आये!

वे एक विलक्षण चित्रकार एवं शिल्पकार थे.वे बोर्देल एवं रोडिनजैसे कलाकारों से प्रभावित थे. वे मिस्र मूर्तिकला, लोक कला, और अफ्रीकी मूर्तिकला से खासे प्रभावित थे  साथ ही क्यूबिज्म से भी उतना ही! १९२१ की "क्युबिस्तिस्क फ्लीका" (क्यूबिस्ट लड़की) स्वीडन के कला इतिहास की मौलिक  कृतियों में से एक मानी आती है. गौगुइन भी ह्योर्थ के प्रेरणाश्रोत रहे. ह्योर्थ की कला की विलक्षणता और विशिष्टता यही है कि वह आधुनिकतावादी प्रशिक्षण एवं लोककथाओं की परंपरा के विलय से बना है. उनकी मूर्तिकला के उबड़ खाबड़ बीहड़ से डिजाईन और चटक रंग एक तरह से ज़िन्दादिली को ही प्रेषित करते से लगते हैं मानों जीवन अपनी पूर्ण जीवन्तता  के साथ मूर्तियों में प्रविष्ट हो गया हो. प्रेम का रूपांकन, लोककथाएं एवं सारंगीवाले उनकी कला के मुख्य विषय हुआ करते थे. धार्मिक विषयों से जुड़ी कलाकृतियाँ भी काफी संख्या में हैं, ज्यादातर वे कलाकृतियाँ उन्होंने गिरिजाघरों के लिए बनायीं. उनमें से एक है भव्य लैसटेडिअस त्रिटिचजो युकसयार्वी गिरिजाघर में है, सूदूर उत्तरी स्वीडन में!

म्यूजियम के भीतर तस्वीर लेना प्रतिबंधित था, सो तस्वीरें तो नहीं ले पाए पर एक झलक समेट सकते हैं यहाँ रिसेप्शन पर मिले कैटलौग में से तस्वीरें खिंच कर. कैटलौग से खिंची गयी ह्योर्थ की दो तस्वीर: दूसरी तस्वीर में शिल्पकार ह्योर्थ उप्साला स्टूडियो में पुरातत्वों के बीच "एवा" की अपनी पेंटिंग के साथ नज़र आ रहे हैं: :






यह म्यूजियम सबसे बड़ा प्रतिनिधि संग्रह है ह्योर्थ की कला का. सभी चित्र, मूर्तियाँ, पेंटिंग कलाकार के जीवन और अपने काम के प्रति उनकी गहरी अंतर्दृष्टि को प्रतिविम्बित करते से प्रतीत होते हैं. स्थायी संग्रह मूल ईमारत में ही है. ईमारत को तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं- स्टूडियो, गैलरी और बैठक. तीनों भागों में मिला कर कुल २७३ शिल्प, कला और चित्रकारी से सम्बंधित मूल नमूने हैं. 



काफी हद तक आतंरिक साज सज्जा एवं फर्नीचर, किताबें एवं औजार वैसे ही रखे हुए हैं जैसे वो कभी इस्तमाल के दौरान रहा करते होंगे. ऊपर का तल्ला ऑफिस में परिवर्तित कर दिया गया है और बेसमेंट में फिलहाल व्यापक कला एवं शैक्षणिक गतिविधियों के लिए वर्कशॉप की व्यवस्था है.

१९४३ में बने इस घर में ह्योर्थ ने अपनी शेष ज़िन्दगी बितायी… १९६८ तक! १९७८ में रिसेप्शन बना और जनता के दर्शनार्थ इस घर को संग्रहालय बना कर खोल दिया गया. प्रदर्शनी हॉल १९९४ में बनकर तैयार हुई… यहाँ पर आये दिन प्रदर्शनियां लगती रहती हैं, जब हम पहुंचे थे तब वहाँ इओन विक्लैंड के कार्यों की प्रदर्शनी लगी हुई थी. विक्लैंड मुख्यतः मशहूर लेखिका अस्त्रिद लिन्द्ग्रेन  की पुस्तकों के चित्रात्मक चित्रण के लिए जानी जाती हैं. 

जब हम चार वर्ष पूर्व स्वीडन आये थे और स्वीडिश भाषा सीखनी प्रारंभ की थी तब सबसे पहले जो किताब पढ़ी वह थी लिन्द्ग्रेन की "ब्रोदरना लेयोनह्यार्ता". इस पुस्तक से भी प्रदर्शनी में ढेर सारे इलसट्रेसंस थे जो हमें बचपन में पहुंचा देने को पर्याप्त थे. उन्हें देख कर बचपन की कहानियों सा कुछ कुछ तो लगता ही था, कि एक सी ही होती हैं हर देश की परीकथाएँ, हर देश के बच्चों का मन और बचपन का मनोविज्ञान; साथ ही हमें स्वीडिश भाषा की ए-बी-सी-डीसीखने वाले दिन भी याद आ गए! अस्त्रिद लिन्द्ग्रेन के विषय में भी लिखने को बहुत सारे अनुभव हैं, लेकिन वह फिर कभी!

रिसेप्शन पर ही म्यूजियम की दूकान है और एक कैफे भी, गर्मियों में यह कैफे बढ़ कर हरे भरे शांत उद्यान तक फैल जाता है. हम भी जब गए थे तो वह तो गर्मियों का ही वक़्त था, २० मई २०१२. कैफे उद्यान में विस्तार पाए हुए था! विश्रांति थी…  ठहर जाने को हाथ पकड़ कर बिठा लेने वाली मुद्रा में मानों हर आगंतुक से अनुनय विनय करता सा कैफे था! 

पूरी उप्साला यात्रा में हमने मात्र एक ही सुविनर ख़रीदा था और वह था एक पोस्टकार्ड इसी म्यूजियम शॉप से! पोस्टकार्ड में घर के एक कमरे की तस्वीर है जिसमें ह्योर्थ द्वारा बनायी महात्मा गाँधी की मूर्ती ऐनक लगाये खड़ी है अन्य कलाकृतियों के बीच, बड़े शान से, पूरी आभा के साथ! ऊपर लगायी तस्वीर उसी पोस्टकार्ड की है. 

प्रख्यात क्यूबिस्ट लड़की अनूठी शिल्पकला का उदाहराण है, ऊपर पोस्टकार्ड से खिंची तस्वीर में स्पष्ट नहीं है. हमने ज़ूम कर के तस्वीर निकाली है इस आकृति की, फोटो उतनी स्पष्टता लिए हुए नहीं है लेकिन फिर भी सहेज लेते हैं यहाँ!




कह नहीं सकते शब्दों में कि रास्तों को कैसे आभार व्यक्त किया था मन ही मन. ये रास्ते ही तो थे, जिन्होंने भटकाया और ले आये यहाँ सीधे एक महान कलाकार  के तपःस्थल पर, जिसने हमारे महात्मा को मूर्तिरूप देकर प्रतिष्ठित किया हुआ है अपने कला मंदिर में. ये तस्वीर भी उसी पोस्टकार्ड से ज़ूम कर के निकाला है हमने!




काश! ऐसा हो कि शांति और अहिंसा के मार्ग से कई सन्दर्भों में विमुख देश दुनिया भारत के राष्ट्रपिता के सिद्धांतों पर अमल करना सीख ले हर सांस हर सन्दर्भ में! भटकना अस्वाभाविक नहीं है पर भटके ही रहना कष्टकर है, जिस दुनिया समाज में हम रहते हैं उसके लिए भी और हमारे लिए तो भटकन दुर्भाग्यपूर्ण है ही! हमारी दिशा ही तो तय करती है समाज की दिशा, पड़ोसी मुल्कों का सौहार्द भी तो जरा से विवेक पर ही टिका होता है! कब सीखेंगे दुराचारी सीमा की मर्यादा को, कब देश के तथाकथित कर्णधार अपने जवानों की शहादत का मोल समझेंगे और सियासी राजनीति करना छोड़ेंगे, जाने कब होगा ये, जाने कब महात्मा के सिद्धांत पुनः प्राण प्रतिष्ठित होंगे? 

तीज त्योहारों का मौसम है, ईद की चहल पहल है, पर मेरी आँखों में आंसू हैं, मेरा हृदय उस परिवार के लिए रो रहा है, जिसके बेटे सीमा पर शहीद हो गए और उस शहादत का अपमान करने वाली आवाजों के प्रति क्षोभ और गुस्से से भरा है! कहाँ चली जाती बुनियादी इंसानियत, पद पर पहुँच कर मात्र नेता रह जाते हैं लोग, किसी से नाता ही नहीं होता उनका! 

गांधी की आत्मा दुखी होगी और स्मृतियों में चक्कर लगाते हुए अपने देश से सुदूर इस घर के एक कोने में जब उनके दर्शन हुए तो भावनाओं में बह कर यात्रावृतांत से थोड़ा भटक गए हम. पर भटकने पर ही सही मंजिल मिलती है ऐसा तो पहले ही स्पष्ट हो चुका है इस यात्रा के अनूठे प्रारब्ध से ही! तो, इस यात्रा की यात्रा पर जब कलम निकली है तो भटके क्यूँ न! भटक कर कलम ने सही राह पकड़ी, अपनी मिटटी तक पहुँच गयी, उन जवानों के घर तक भी जिनकी शहादत अमर रहेगी! उन्हें अश्रुपूरित नमन!

*****

जो सन्दर्भ रहे, जहां ले गयी स्मृतियाँ, जो लिख गयी कलम वह समक्ष है, अब आगे भी जल्द इस यात्रा के अन्य पड़ाव भी लिख जायेंगे कि वे भी कम महत्वपूर्ण नहीं! 



बार बार अपने आप को ही याद दिलाना जरूरी होता है, इसलिए याद दिला दे रहे हैं स्वयं को, नहीं तो इस क्रम के रूक जाने की पूरी सम्भावना है… छुट्टियाँ समाप्त होने को हैं, अगले सत्र का शेड्यूल आ गया कल, यहाँ से मेरे पुनः गायब हो जाने की सम्भावना प्रबल होती दिख रही है…!


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