पहाड़!
तुम तक आते हुए
हमने नदी को छुआ
वो नदी युगों से तुम्हारे चरण धो रही है
कल-कल बहते झरनों से उसकी हर क्षण बात हो रही है
हमने देखा
पेड़ जो टिक कर खड़े हैं
उनसे झरते पत्तों से एक कथा झर रही है
ये निर्जनता कितनी ही व्यथाओं का घर रही है
बहती नदी की दुर्गम यात्रा की गवाह हैं हवाएं
चोट खाते झरनों की वेदना प्रतिबिंबित होती रही है इस सुनसान में.
हमें संज्ञान है
तुम देखते रहे
नदी झरनों की रोज़ की जूझन टूटन
आद्र रही तुम्हारी कठोर भंगिमाएं
तुम अचल अविरल साथ रहे नदी के
बने रहे झरनों के संबल.
ये भी आभास है हमें
कोई देख न पाया
न ही कोई कभी देख पायेगा
तुम्हारा कोमल मन
और वहां सांस लेती वेदना भी
अनचीन्ही ही रह जाएगी.
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जीवन की इस राह में
कोई नदी है...
कोई झरना...
और हममे से ही कोई कभी-कभी होता है पहाड़ भी !