आँखों में आंसू नहीं आने देता...
हर एक मोती चुन लेता...
काश! आकाश सी होती धवल उदारता...
जीवन सारे बिखरे ख़्वाब फिर से बुन लेता...
यूँ खुद को केंद्र में रखकर सोचते हुए
जब एक लकीर खींचते हैं हम
तो जीवन से लगायी उम्मीदें
निराश करती हैं...
अपने मन का ही हो
ऐसा कब होता है... ?
आखिर ऐसा हम चाहते भी क्यूँ हैं... ?!
रे मन!
चल, ज़रा दृष्टि बदल कर
जीवन को थाहते हैं...
अपने आप को वहां से विस्थापित कर...
जीवन को केंद्र में स्थान दिया...
खुद को गौण कर लिया
उसे सारा मान दिया...
उसकी दृष्टि से सोचा...
उसके दुःख से व्यथित हुए...
नयन अश्रुविग्लित हुए...
दोनों का सुख दुःख
यूँ एकाकार हो जाए...
ज़िन्दगी के हृदय से लगने का
दुर्लभ स्वप्न साकार हो जाए... !!