एक बार फिर चमक उठी रौनक खो चुकी थी, जो मोती... कैसे कैसे चमत्कारों की प्रत्यक्ष-द्रष्टा, जीवन जैसे अखंड एक ज्योति...
मत बैठ जाना हार कर कि वो सहज बिछौना है उसका, पीड़ा आत्मा की सेज़ पर है सोती... सुख-दुःख की आवाजाही से परे मन-वीणा संकीर्तन के संभाव्य पलों को, है बड़ी श्रद्धा से पिरोती...
उग आएँगी फिर से वे लकीरें जो हथेलियों से फिसल गयीं, किस्मत का ताना बाना होती होती... चलते जाना पथ पर अचिन्त्य दुखों की परवाह किये बिना, सुख की छवियाँ ऐसी ही हैं होती...
उनमें उज्जवल एक इन्द्रधनुषी प्रकाश है, आँखें यूँ ही नहीं हैं रोती... एक बार फिर चमक उठी रौनक खो चुकी थी, जो मोती... !!