ठोकर
इतना नहीं खलती
गर दर्द न रह जाता...
घावों के निशान न रह जाते...
शायद
ये रास्ते के ठोकर
ज़रूरी हैं...
कि चलने का सलीका
चलते-चलते ही तो आता है...
लड़खड़ाते हुए
आगे बढ़ने में...
दर्द
धीरे-धीरे
बिसर जाता है...
कि...
विकल्प नहीं कुछ और
दर्द के जाने कितने ठौर... !!