जाने क्यूँ
ऐसा है... ??
मेरी नज़र
जहाँ जहाँ जाती है...
हर जगह चीज़ें उलझी हुईं हैं...
कहीं
बातों का कोई सिरा
छूट गया है...
कहीं
जीवन का आस से
रिश्ता टूट गया है...
दीपमालिकायें
जाने क्यूँ
बुझी हुईं हैं...
हर जगह
चीज़ें
बेतरह उलझी हुईं हैं...
दामन से बाँध कर सहेजा
आस्था का पुष्प
खो गया है...
नम आँखें उदास हैं
जाने मन के मौसम को
क्या हो गया है...
सारी विषमताएं मिल कर
नन्हें विश्वास को डिगाने पर
तूली हुईं हैं...
हर जगह
चीज़ें
बेतरह उलझी हुईं हैं...
ऐसे में
कुछ रंग बिखेरती हूँ कागज़ पर
सूरज की किरणें बनाती हूँ...
उन किरणों के प्रकाश में
कितनी ही
प्रिय कवितायेँ दोहराती हूँ...
फिर
कुछ तो
सहज होता है...
भले
कुछ पलों के लिए ही ये
महज़ होता है...
लेकिन चलो इतना तो हो जाता है
हताश मंज़र खो जाता है
किरणें राह दिखातीं हैं...
मन मंदिर में फिर से दीप जलातीं हैं... !!