एक घर सजाया प्यार से
सब से प्रीत बढ़ाई
कितनों से होती गयी आत्मीयता
फिर भी शुरू से आखिर तक रही मैं परायी
बंधे थे तो मर्ज़ी से
तोड़ा बंधन तब भी अंदाज़ रहा न्यारा
पड़ाव का मोह बिसार
चल दिए, तो मिल ही जायेगा किनारा
गाता जाए मन बंजारा
रुके तो, आंसू समेटा, खुशियाँ बांटी
कभी हंस हंसा लिए तो कभी नयनों में बदरी छाई
जो बढ़े, तो विस्मृत कर दिया छूटता मंज़र
ख़ुशी ख़ुशी हो गयी अपनी विदाई
दर्द मिला तो दिल पर नहीं लिया
क्या दुर्भावना रखेगी बहती धारा
जो पराये हुए, जो अपने हैं
उन सबमें झलके है वही एक करतारा
गाता जाए मन बंजारा
दो पल जिया किसी मोड़ पर
दो पल कही रैन बितायी
चार दिन की ज़िन्दगानी
उसमें क्यूँ करना संचयन? कैसी तिकड़म, मेरे भाई
गुज़रे जो पल सद्भावपूर्ण माहौल में
उन लम्हों पर हमने सदियों को वारा
शांति का अचल पैगाम लिए
चलते जाना ही है ध्येय हमारा
गाता जाए मन बंजारा
रगड़ों झगड़ों में पड़ना क्या
अंतिम मोड़ पर सबको है अकेले ही लड़नी अपनी लड़ाई
जीवन कल नहीं रहेगा, मौत सारे आवरण छीन लेता है
तब कहाँ से चल पाएगी चतुराई?
समझ नहीं पाता अभिमान
"उसकी"महिमा अगम अपारा
अरमान यही कि खगवृन्दों सी दुनिया हो
उड़ता रहे निर्बाध, मन मोह तोड़ कर सारा
गाता जाए मन बंजारा
[ ६.५. २००१, पुरानी डायरी से ]