जाने को उद्धत हो न
चले जाना...
कौन रोक सका है समय को...
किसने बांधा धारा को...
ये बेकार ही न जिद्द ले बैठते हैं कि आधे आधे न हों हम
जो हो वो सारा हो...
सब तो बिखरन ही है यहाँ
फिर हम कैसे साबूत बच जायेंगे...
जाना है न... जाओ...
दरके हुए हैं टूट ही जायेंगे...
पर इससे क्या
जो है सो है नियति यही है
क्या सोचना व्यर्थ
सारी बात तुम्हारी अक्षरशः सही है
गति का नाम जीवन है
पर कभी कहीं रुक जाना भी जीवन ही होता है
कभी कभी जीतते जीतते हार जाने का भी मन होता है... !!