यात्रा में यहाँ वहाँ, रोते हँसते, दौड़ते भागते, भींगते सूखते लिखे गए कुछ चुटके पूर्जों को सहेजते हुए... ::
बादल न आकाश का होता है... न ही ज़मीन का... दोनों के बीच उपस्थित वह केवल भ्रम ही जीता है... हमारी तरह... आसमान के होने का भ्रम... और हवा के न होने का भ्रम... दिखती नहीं पर होती है हवा... दीखता है पर आकाश होता नहीं वास्तव में... वो तो बस अनंत है... नीला रंग अनंत का ही विस्तार है...
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ज़िन्दगी सफ़र में है और सफ़र के साथ जुड़ी हैं लाखों अनिश्चितताएं... उस पर जीवन, जीवन तो अनिश्चितता का ही पर्याय है... तो यह स्वाभाविक ही है कि सफ़र और ज़िन्दगी दोनों साथ चल रहे हों तो अनिश्चितताएं तो होंगी ही... भले खीझ हो जितनी भी... कष्ट हो कितना भी... चलना तो होता ही है... और विकल्प क्या है हमारे पास...
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यकीन करना तुम्हारे होने से ही होती है धूप स्नेहिल... वो जरा सी धूप अभी खिली है... जरा सी नर्म धूप जो मुझे हृदय से लगाने को तत्पर है... नाराज़ नहीं हो न...?
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रास्ते सीखाते हैं पाँव की चोट की परवाह किये बगैर चलते जाना... कितनी चोट कितने गड्ढे... कितना ही दंश क्यूँ न झेल रहे हों... रास्ते चलना कभी नहीं छोड़ते...!
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मुस्कान खिली रहे मुखड़े पर... पार लग जायेगी नाव
कविता के आँगन में ही तो है... अपने सपनों का गाँव