गुज़रती हुई
रेलगाड़ी की आवाज़ से
गूँज रहा है मेरा एकांत
उस आवाज़ में कई स्वर शामिल हैं
पटरियाँ
अपने दुःख गुनगुनाती हैं
रेल पूरी कर्कश तन्मयता से
उस पर से गुज़र जाती है
अंधेरे बोलते हैं
आवाज़ में अपना भी स्वर घोलते हैं
उनके स्वर में अनचिन्हे दुःख हैं
दूर गुज़रती रेल
और मेरे एकांत के बीच
जो फ़ासला है
वहाँ बीच में कहीं आकाश की भी उपस्थिति है
कुछ टिमटिम तारों की लय से
आकाश के फैलाव में
मुस्कानें हैं
कहीं उदास सा चाँद भी है
जो हर दिन
अलग ही होता है
उसके अकेलेपन के राग से
कभी-कभी तो
आकाश भी द्रवित हो रोता है
बारिश होती है
फिर
वह टिप-टिप स्वर में
सौंधे शब्द पिरो
आसमान का दर्द भी गाती हैं!
रेलगाड़ी को गुज़रते हुए सुनना
कितनी आवाज़ों को आत्मसात करना था-
ये शायद ही
मेरा समय
कभी रेखांकित कर पाए
ज़िंदगी
आवाज़ और ख़ामोशी के गणित को जीती हुई
किसी तरह किसी रोज़
पूरी की पूरी समझ आ जाए
काश!