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दिखती कोई राह नहीं...!

कौन करे अब
पहले की बातें,
जब वहाँ तक जाती
दिखती कोई राह नहीं... 


कौन पाले
उड़ जाने के सपने,
जब बंध कर
रह जाना है यहीं कहीं... 


कौन रचे अब
रेत किनारे,
है मझधार में
तो मझधार सही... 


जितना
मिलता है,
उससे कहीं अधिक
छूट जाता है;
हम बस उसके पास होने का
एहसास लिए फिरते हैं,
ज़िन्दगी तो हर बार
निकल जाती है और कहीं! 


कौन करे अब
तुझसे बहस,
ज़िन्दगी!
हमें तेरी कोई थाह नहीं... 


जैसे रखेगी अब
रह जायेंगे,
मन में बाकी बची
कोई चाह नहीं...


कौन करे अब
पहले की बातें,
जब वहाँ तक जाती
दिखती कोई राह नहीं...


एक ऐसी सम्भावना जगती
इस हताश क्षण में,
काश! कह पाते
दिखती है एक राह नयी…  


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