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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ५५ :: सत्यनारायण पाण्डेय

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सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयसज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति. अद्यापि विभूतियोगोनाम दशमे अध्याये यात्रा भविष्यति!

प्रिय बंधुगण !
कल हमलोगों ने अर्जुन को दिए गए भगवान् के आश्वाशन को "जो मुझे सदा याद करते हैं, उनके अंतःकरण में स्थित होता हुआ स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अन्धकार को प्रकाशमय तत्वज्ञान रूप दीपक के द्वारा नष्ट कर देता हूँ". यह आश्वाशन हम सभी भगवद भक्तों के लिए भी है जो उनके मनन चिंतन में लगे रहते हैं. अतः इस सहज वृत्ति को अपनाने मात्र से परमात्मा की परम ज्ञान दान की अहैतुकी कृपा हमें भी अवश्य प्राप्त होगी, यही सत्य है. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि यह दशम अध्याय भगवान् की विभूतियों के मुख्य वर्णन के कारण विभूतियोग नाम दशम अद्याय कहलाता है! अर्जुन का सौभाग्य था कि सगुण साकार ब्रह्म उसके सामने मनुष्य रूप में परमसखा की तरह उपस्थित थे. दुर्भाग्यवश वह उन्हें उस रूप में पहचानता नहीं था. यह स्वाभाविक भी है -- "अतिपरिचयात् अवज्ञा"! 

पर अब भगवान् कृष्ण के संकेत करने पर अर्जुन को ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् की विभूति और योग को तत्व से जानना भगवदप्राप्ति के लिए आवश्यक है. अतः वह उनकी स्तुति करता हुआ उनकी योगशक्ति और विभूतियों को भली भांति जानने के लिए विस्तार से वर्णन की प्रार्थना करता हुआ कहता है कि -- हे प्रभु! आप परम ब्रह्म हैं, परम धाम हैं और परम पवित्र हैं. आप सभी ऋषियों दिव्या पुरुषों एवं देवों के भी देव हैं. अजन्मा और सर्व व्यापी हैं, ऐसा देवर्षि नारद, महर्षि व्यास आदि भी कहते रहे हैं. स्वयं आपने भी आज मेरे प्रति इन बातों की चर्चा की है. हे केशव! मैं भी इन सारी बातों को सत्य मानता हूँ, यह भी मानता हूँ कि आपके लीलामय स्वरुप को देव, दानव और मनुष्य भी नहीं समझ पाते. 

यहाँ अर्जुन के कथन का अभिप्राय यह है कि जब प्रभु के सगुण साकार लीलामय स्वरुप को देखते हुए भी वह समझ से परे होता है तो कोई भी देव, दानव या मनुज उन्हें किस प्रकार जान पायेगा! अतः अर्जुन निवेदन करता है कि प्रभु अपनी जिन विभूतियों से सम्पूर्ण लोकों को व्याप्त कर स्थित हैं उन दिव्य विभूतियों को सम्पूर्णता से कहने में भी एकमात्र वे ही समर्थ हैं. अर्जुन जानना चाहता है कि वह किस प्रकार निरंतर चिंतन करता हुआ प्रभु को जान सके. किन किन भावों में स्थित हो प्रभु चिंतन किया जा सके उन सभी योग शक्तियों और विभूतियों को विस्तार पूर्वक सुनने की आकांक्षा व्यक्त करता है अर्जुन क्यूंकि अमृतमय वाणी सुनने की उसकी उत्कंठा निरंतर बनी हुई है--

स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । 
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते ॥
वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि ॥ 
कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्‌ । 
केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया ॥ 
विस्तरेणात्मनो योगं विभूतिं च जनार्दन । 
भूयः कथय तृप्तिर्हि श्रृण्वतो नास्ति मेऽमृतम्‌ ॥ 

इन्हीं श्लोकों (१५-१८) के भावार्थ ऊपर सन्निहित हैं. अर्जुन ने सुनने की उत्कंठा दिखलाई और भगवान् भी उसकी प्रार्थना के अनुरूप भगवान् ने अपनी विभूतियों का वर्णन करने के लिए तैयार हो जाते हैं और कहते हैं कि-- यद्यपि मेरी विभूतियों के विस्तार का कोई अंत नहीं है तथापि तुम्हारे समक्ष मैं दिव्य विभूतियों का वर्णन करता हूँ (यह स्वाभाविक बात है कि यदि कोई सुनने की इच्छा रखता हो तो सुनाने वाले की रुचि भी बढ़ जाती है पर हम जन साधारण के लिए यह विडंबना ही है कि जब कोई अच्छी बात बता रहा होता है तो हमारी रूच जाग्रत नहीं होती और जब जानने की इच्छा होती है तब बताने वाला कोई नहीं मिलता. हमें जब भी ऐसे सत्संग और सद्वाणी का सुअवसर मिले, उसे चूकना नहीं चाहिए).

भगवान् अपनी प्रमुख विभूतियों का वर्णन करते हुए अर्जुन से कहते हैं-- हे अर्जुन! मैं सब भूतों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ, साथ ही सम्पूर्ण भूतों का आदि अंत मध्य मैं ही हूँ, मैं ही अदिति के बारह पुत्रों में विष्णु हूँ, और ज्योतियों में किरणों वाला सूर्य भी मैं ही हूँ. जिन उनचास पवनों की चर्चा है उसमें मरीचि नाम का वायु देवता और नक्षत्रों का अधिपति चन्द्रमा भी मैं ही हूँ. मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवताओं में इंद्र हूँ, एकादश इन्द्रियों में मन हूँ और सम्पूर्ण प्राणियों की जीवन शक्ति भी मैं ही हूँ, मुझे ही एकादश रुद्रों में शंकर जानों, यक्ष तथा राक्षसों के बीच धन का स्वामी कुबेर भी मैं ही हूँ, आठ वसुओं में अग्नि हूँ, शिखर वाले पर्वतों में सुमेरु, पुरोहितों में मुखिया बृहस्पति, सेनापतियों में स्कन्द और जलाशयों में समुद्र हूँ, ऋषियों में भृगु, अक्षर में ओंकार और सब प्रकार के यज्ञों में जपयज्ञ हूँ, अचल हिमालय भी मैं ही हूँ--

श्रीभगवानुवाच हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः । 
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥ 
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः । 
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥ 
आदित्यानामहं विष्णुर्ज्योतिषां रविरंशुमान्‌ । 
मरीचिर्मरुतामस्मि नक्षत्राणामहं शशी ॥ 
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः । 
इंद्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ॥ 
रुद्राणां शङ्‍करश्चास्मि वित्तेशो यक्षरक्षसाम्‌ । 
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम्‌ ॥ 
पुरोधसां च मुख्यं मां विद्धि पार्थ बृहस्पतिम्‌ । 
सेनानीनामहं स्कन्दः सरसामस्मि सागरः ॥ 
महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम्‌ । 
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥ 

जैसा कि भगवान् ने विभूति कथन के आरम्भ में ही अर्जुन को स्पष्ट कर दिया था कि उनकी  विभूतियों का कोई अंत नहीं. अतः अति दिव्य और जन साधारण के दृष्टि पथ में भी आने वाली मुख्य विभूतियों को उन्होंने बताया है. गीता ज्ञान यात्रा के सुधि पाठकों से भी मेरा विनम्र निवेदन है कि मैं भी भगवान् द्वारा कही गयी कुछ और विभूतियों का वर्णन करते हुए इस अध्याय को समाप्त करूँगा. विस्तार से बताई गयी विभूतियों का अवलोकन गीता मूल से भी किया जा सकता है. 

भगवान् कहते हैं-- मैं वृक्षों में पीपल हूँ, देवर्षियों में नारद हूँ, घोड़ों में उच्चै श्र्वा हूँ, हाथियों में ऐरावत, शास्त्रों में वज्र, गायों में कामधेनु, पितरों में अर्यमा, शासन करने वालों में यमराज, दैत्यों में प्रह्लाद, पशुओं में सिंह, पक्षियों में गरुड़, शस्त्र धारियों में राम हूँ, जलचरों में मगर हूँ, मैं ही सृष्टि का आदि, अंत, मध्य हूँ, मैं ही अध्यात्म विद्या हूँ साथ ही परस्पर विवाद करने वालों के बीच तत्व निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद भी मैं ही हूँ, अक्षरों में अकार हूँ, समासों में द्वन्द समास हूँ, अक्षयकाल मैं ही हूँ, मई ही स्त्रियों में कीर्ति, श्री, वाक्, मेधा, स्मृति, धृति और क्षमा हूँ, मासों में मार्गशीर्ष अगहन, ऋतुओं में वसंत, तेजस्वियों का तेज मैं ही हूँ, वृष्णि वंशियों में वासुदेव और पांडवों में धनञ्जय अर्थात स्वयं तू ही हूँ, मुनियों में वेदव्यास और कवियों में मैं शुक्राचार्य हूँ. अंततः भगवान् कहते हैं कि सभी भूतों की उत्पत्ति का कारण भी वे ही हैं! इसप्रकार २० वें श्लोक से ३९ वें श्लोक तक भगवान् ने दिव्य विभूतियों का वर्णन करते हुए उपसंहार पूर्वक कहते हैं-- हे अर्जुन! मरी विभूतियों का अंत नहीं है. मैंने जिन विभूतियों की अभी चर्चा की है वह अत्यंत संक्षिप्त है, अतः तुम्हें यह ध्यान रखना चाहिए कि जो जो विभूति युक्त अर्थात ऐश्वर्य युक्त, कान्तियुक्त, शक्तियुक्त तुम्हें संसार में दिखे, उसे तुम मेरे ही अंश की अभिव्यक्ति जानना.

 पुनः वे कहते हैं इससे अधिक और वे क्या कहें-- यह समस्त जगत उनकी योग शक्ति के एक अंश मात्र से ही उत्पन्न है अर्थात वे इस सम्पूर्ण जगत को अपनी योगशक्ति के एक अंशमात्र से धारण करके स्थित हैं--

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा ।
 तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम्‌ ॥ 
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
 विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्‌ ॥ 

हमें भगवान् की इस वाणी को बराबर ध्यान में रखना चाहिए कि हममें से कोई भी विशिष्ट ज्ञान, बुद्धि, शक्ति, सौन्दर्य, विवेक से युक्त दिखाई पड़े तो हमें ईश्वरीय अंश मान कर उनका सम्मान करना चाहिए और उनसे कुछ सीखना भी चाहिए. इस प्रकार विभूति योग नाम दशम अध्यम पूर्ण हुआ. अब यात्रा विश्वरूप दर्शन योग नाम एकादश अध्याय में प्रविष्ट होगी. 

हरिः ॐ तत्सत् !

क्रमशः

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


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