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सुप्रभातम्! जय भास्करः! ५० :: सत्यनारायण पाण्डेय

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सुप्रभातः सर्वेषां सुहृदयसज्जनानां कृते ये गीता-ज्ञान-यज्ञे संलग्नाः सन्ति. अद्यापि अक्षरब्रह्मयोगोनाम  अष्टमे अध्याये एव यात्रा भविष्यति!

प्रिय बंधुगण !
कल हमलोगों के इस अध्याय के १३वें श्लोक तक निराकार सगुन परमेश्वर के और निर्गुण निराकार ब्रह्म के उपासक योगियों की अन्तकाल में प्राप्त होने वाली गति और फल को जाना पर हमें यह भी जानना चाहिए कि इस प्रकार का साधन उन व्यक्तियों के लिए ही सुगम हो सकता है जो पहले से ही योग का अभ्यास करते हुए अपने मन को अपने वश में कर लिए हों. हमारे आपके जैसे जनसाधारण अन्तकाल में इस प्रकार सगुण निराकार और निर्गुण निराकार की साधना में सक्षम नहीं हो सकते. अतः १४वें-१६वें श्लोक में हमारे आपके जैसे लोगों के लिए सुगमतापूर्वक परमेश्वर की प्राप्ति कैसे हो सकती है यह बतलाते हुए भगवान् ने कहा है--

अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनीः ॥
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम्‌ ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥

अर्थात्, हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्य-चित्त होकर सदा ही निरंतर मुझ पुरुषोत्तम को स्मरण करता है, उस नित्य-निरंतर मुझमें युक्त हुए योगी के लिए मैं सुलभ हूँ. परम सिद्धि को प्राप्त महात्माजन मुझको प्राप्त होकर दुःखों एवं क्षणभंगुर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते. ब्रह्मलोकपर्यंत सब लोक पुनरावर्ती हैं, परन्तु हे कुन्तीपुत्र! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता, क्योंकि मैं कालातीत हूँ और ये सब ब्रह्मादि के लोक काल द्वारा सीमित होने से अनित्य हैं.

इस प्रकार ८वें और १०वें श्लोक में अधियज्ञ की उपासना का फल, परम ब्रह्म की प्राप्ति, १३वें श्लोक में परमअक्षर निर्गुण ब्रह्म की उपासना का फल, परम गति की प्राप्ति और १४वें श्लोक में सगुण साकार भगवान् श्री कृष्ण की उपासना का फल, भगवान् की प्राप्ति है-- यह हम लोगों ने जाना. इन तीनों में किसी को किसी प्रकार भ्रम न हो इसी उद्देश्य से तीनों भेदों की एकरूपता का प्रतिपादन करते हुए साधक के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति और पुनर्जन्म का अभाव दिखलाते हुए २१ श्लोक में भगवान् कहते हैं--

अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्‌ ।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम ॥
अर्थात्, जो अव्यक्त 'अक्षर'इस नाम से कहा गया है, उसी अक्षर नामक अव्यक्त भाव को परमगति कहते हैं तथा जिस सनातन अव्यक्त भाव को प्राप्त होकर मनुष्य वापस नहीं आते, वह मेरा परम धाम है.

२२वें श्लोक में सनातन अव्यक्त पुरुष की और परम धाम की एकता बतलाते हुए यह भी स्पष्ट करते हैं कि वह सनातन अव्यक्त परमपुरुष अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य हैं-- 

पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया ।
यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततम्‌ ॥
अर्थात्, हे पार्थ! जिस परमात्मा के अंतर्गत सर्वभूत है और जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मा से यह समस्त जगत परिपूर्ण है वह सनातन अव्यक्त परम पुरुष तो अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है.

यहाँ परमात्मा की अनन्य भक्ति से अभिप्राय यह है कि "न अन्यः = अनन्यः "अर्थात्, परमात्मा के सिवा और कोई नहीं, यही परमात्मा के प्रति साधक का अनन्य भाव कहलाता है. प्रायः हम सबों की मानसिक स्थिति यह होती है कि हम परमात्मा को तब याद करते हैं जब सब तरह से हार गए होते हैं जबकि अहर्निश हमें उस परमात्मा को याद करते हुए निष्काम कर्म में रत रहना चाहिए क्यूंकि स्थूल रूप से जन साधारण के लिए मुक्ति का सरल मार्ग यही है. आगे भगवान् ने उत्तरायण के ६ महीने और दक्षिणायन के ६ महीने में क्रमशः ब्रह्मवेत्ता योगीजन की एवं सकाम कर्म करने वाले योगी की गति का वर्णन किया है जिसे शुक्ल और कृष्ण अर्थात् देवयान और पितृयान कहा है. देवयान से गया हुआ व्यक्ति वापस नहीं लौटता क्यूंकि उसे परम गति प्राप्त हो जाती है और दूसरा सकाम कर्म करने  वाला ब्रह्मादी लोकों में सुखोपभोग करता हुआ वापस आ जाता है अर्थात् जन्म मृत्यु का चक्र चलता रहता है--

शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ॥२६॥

इस अध्याय के अंतिम श्लोकों में भगवान् दोनों मार्गों को जानने वाले या दोनों में से किसी एक मार्ग का अनुसरण करने वाले योगी की प्रशंसा करते हुए अर्जुन को योगी बनने के लिए प्रेरित करते हुए कहते हैं कि हे पार्थ! इस प्रकार दोनों मार्गों को तत्व से जानकर कोई योगी मोहित नहीं होता, इसलिए तुम सब काल में समबुद्धि रूप योग से युक्त होकर निरंतर मेरा ही स्मरण करते हुए मेरी प्राप्ति के लिए ही साधन करने वाला बन जाओ. तात्पर्य यह है कि परमात्मा और उनका लोक, दोनों एक ही हैं. इससे फलित यह हुआ कि सारे ऊहापोह से अपने मन मस्तिष्क को अलग करते हुए ईशस्मरणपूर्वक निष्काम कर्म सम्पादन ही परमात्म प्राप्ति का सहज मार्ग है--

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥ 

इस प्रकार २७वें श्लोक में भगवान् ने अर्जुन को योगयुक्त होने को कहा और योगयुक्त पुरुष की महिमा बतलाते हुए २८ वें श्लोक में कहते हैं--

वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्‌ । 
अत्येत तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्‌ ॥

अर्थात्, समस्त दान, धर्म, तप, वेदाध्यन जो पूण्य प्राप्त होता है उन सबसे कहीं अधिक पूण्य की प्राप्ति निष्काम कर्म योगी को होती है और वह सनातन परम पद को प्राप्त हो जाता है.  

अब कल से हमलोगों की यात्रा राजविद्याराजगुह्ययोग नामक नवं अध्याय में प्रवेश करेगी.

क्रमशः

--डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय 


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