इन टुकड़ों का रचनाकाल याद आता है... रोज़ आदमी कैसे अपने कार्यक्षेत्र में रोज़मर्रा की दुनिया में उलझता सुलझता हुआ जीता है इसी की एक सहज सी झांकी प्रस्तुत करती सी भाव दशाएं हैं... वैसे तो बहुत व्यक्तिगत अनुभवों का समावेश है... कॉलेज की समस्याएं, व्यवस्था से टकराव और शिक्षकों की स्वार्थपरता एवं डर को लक्षित कर लिखे कुछ भाव हैं..., परन्तु ये हर दौर में प्रासंगिक से लगे. आज इस कविता को डायरी के पन्नों से यहाँ उतारते हुए वे दिन सजीव हो उठे... वो हर रोज़ का संघर्ष आँखों के आगे से गुज़र गया !खैर, आज प्रस्तुत है करीब डेढ़ दशक पुरानी पापा की यह रचना...
अंधेर नगरी, चौपट राजा
टके सेर भाजी टके सेर खाजा
थी प्रसिद्ध कभी यह कहावत,
यह अब भी सच लगता है ।
ठोकर जितनी भी लगे,
कौन? कहां? कब? सीखता है ।
क्षुद्र स्वार्थ के लिए सब खण्डित,
कैसे हो सच्चाई मण्डित ?
सत्य तो तिक्त होता ही है ।
सुनने वाला अभियुक्त रोता ही है ।
नीति कहती है--
प्रिय सत्य ही बोलो...
हो कितना भी "सत्य"
अप्रिय हो जो, मुंह मत खोलो...
है यह आलम सारा,
सत्य सर्वत्र दीखता हारा ।
प्रिय पर, झूठ ने, जब सबको "ललकारा "।
अब क्या होगा?
जब भाग रहे सबके सब, जिम्मेवारी से ।
अपना कर्तव्य भुला,
दूसरे को दिखाते न्याय की तुला ।
आखिर क्यों ये ऐसा कर रहे,
जबकि जीवन है, मात्र एक बुलबुला।
धौंस दिखा,
अच्छे होने का प्रमाण पत्र तो
हम पा जाते हैं,
पर क्या, अन्तःकरण की आवाज को,
अनसुना कर पाते हैं ?!!
जहां भी होते
अन्दर की सज्जनता,
धिक्कारती है,
पर दुर्जनता उसे कहां स्वीकारती है?
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"मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना"
माना है स्वाभाविक!
पर क्या?
ऐसे में किनारा पा सकता है,
नाविक?!!
मतलबी तो,
करेगा ही
अपने मतलब की बात...
उन्हें तो दीखती
बस अपनी सौगात...
पर क्या
हम सब मिलकर भी,
नहीं रोक सकते गलत आघात ?!!
दुख है
समूह समझ नही पाता
शातिर दिमाग की चाल ।
पर कौन? कैसे? लोगों को बताए?
जब तक तुम सब जगोगे सब लुट जाएगा ।
बगुलाभगत लगा अपनी जुगत
मन ही मन इतराता है ।
अपनी निष्पन्दता दिखा जलचर को भरमाता है ।
मासूम मरे, समझदार क्या करे?
जब सब ओर यही नजारा है,
पर आशा है यही प्रबल,
आता हर रोज रात्रि के बाद उजाला ।
लाख लोग लगायें सच्चाई के मुखपर ताला ।
*** *** ***अब न कभी कुछ बोलूँगा
न तो सभी के साथ डोलूँगा
कुछ लोग तो रहते ही हैं सुविधाभोगी
उनके होने से कब दुनिया सुख भोगी
बता दे कोई आज हमें
भगत सिंह, चन्द्रशेखर जन्में कितने
जो चाहते मर कर ही अमर होना
उन्हें कब डिगा पायी गोली
कब विचलित कर पाया चांदी सोना
गलती कर जो अकड़ दिखाते
लोगों को भरमा निज जकड़ जताते
खाल शेर का ओढ़ अभी वे जितना अकडें
असली शेर के आते ही जायेंगे पकड़े
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