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जी! ना! कैसा हो? / डॉ. सत्यनारायण पाण्डेय

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आज प्रस्तुत है २००५ की लिखी हुई पापा की एक कविता...
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जी --का मतलब जी हां!
सकारात्मक ।



ना --का मतलब नकारात्मक



ध्यान रहे--


जी हां! कब और कैसा हो?
जी ना! कब और कैसा हो?


यही
ठीक-ठीक समझ लेना,
सच्चा जीना है



यदि ऐसा नहीं है,
तो जी - ना क्या है?



स्वार्थ के लिए,
स्वाभिमान, आत्मसम्मान को खोना---



और चाहे कुछ भी हो 




वह नहीं है सच्चे अर्थों में जीना...



सब जायें (संगी साथी )
सब जाये (धन सम्पत्ति )
कुछ भी फर्क नही पड़ता ।


दुष्टता,
असत्य...
जितने भी बली हों,
जितना भी सर उठाएं --


सज्जनता,
सत्याचरण...
कभी बौने नही हो सकते ।


बादल,
थोड़ी देर
तेजस्वी सूर्य को ढक
भले इतरा ले...


झूठी शान बना
हंस ले


पर
सूर्य उस समय भी
प्रकाशित रहता हुआ,
प्रकाश ही फैला रहा होता है।


सूर्य की तरह
सत्य
सदा से है,
सदा रहेगा।


सूर्य और सत्य --
हमे हमेशा समझा रहे --


"अपने 'स्वभाव'को
'अभाव'में भी मत छोड़ो
सत्याचरण और सद् आचार से मुख मत मोड़ो"


सत्य और सदाचरण में --
जो तेज है,
उष्णता है, 


उससे बादल की तरह --
असत्यभाषी,
दुष्टता भी
लज्जित हो,  हट जायेगी...

फिर सच्चाई और इमानदारी ही
सब को ----
जी और ना ---"जीने"का मर्म सिखायेगी ।


--डॉ. सत्यनारायण पांडेय


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