$ 0 0 आज प्रस्तुत है २००५ की लिखी हुई पापा की एक कविता...---------------------------------------------------------------------------------जी --का मतलब जी हां!सकारात्मक ।ना --का मतलब नकारात्मकध्यान रहे--जी हां! कब और कैसा हो?जी ना! कब और कैसा हो?यहीठीक-ठीक समझ लेना,सच्चा जीना हैयदि ऐसा नहीं है,तो जी - ना क्या है?स्वार्थ के लिए,स्वाभिमान, आत्मसम्मान को खोना---और चाहे कुछ भी हो वह नहीं है सच्चे अर्थों में जीना...सब जायें (संगी साथी )सब जाये (धन सम्पत्ति )कुछ भी फर्क नही पड़ता ।दुष्टता,असत्य...जितने भी बली हों,जितना भी सर उठाएं --सज्जनता,सत्याचरण...कभी बौने नही हो सकते ।बादल,थोड़ी देरतेजस्वी सूर्य को ढकभले इतरा ले...झूठी शान बनाहंस लेपरसूर्य उस समय भीप्रकाशित रहता हुआ,प्रकाश ही फैला रहा होता है।सूर्य की तरहसत्यसदा से है,सदा रहेगा।सूर्य और सत्य --हमे हमेशा समझा रहे --"अपने 'स्वभाव'को'अभाव'में भी मत छोड़ोसत्याचरण और सद् आचार से मुख मत मोड़ो"सत्य और सदाचरण में --जो तेज है,उष्णता है, उससे बादल की तरह --असत्यभाषी,दुष्टता भीलज्जित हो, हट जायेगी...फिर सच्चाई और इमानदारी हीसब को ----जी और ना ---"जीने"का मर्म सिखायेगी ।--डॉ. सत्यनारायण पांडेय