$ 0 0 सबसे ज्यादा हताश थी जब...दुनिया में कहीं कुछ भी ठीक नहीं लग रहा था तब.खुद से ही बेइंतहा नाराज़गी थीउस क्षण-जीवन से अधिक त्याज्यजैसे कुछ भी और नहीं था...कि "जीवन"जीवन ही नहीं था... !इतने अँधेरे कभी नहीं देखे थेहम तो चाँद तारों को आसमान का सच मानते थेकिसे पता था किधरा से चाँद तारों का सामीप्यसब कोरी कल्पना हैं...दूरी के ऐसे मानक प्रतिस्थापित हैंकि जिसकी गणना, कल्पना भी, अकथनीय है...ऐसे मेंये हमारा भोलापन ही तो रहा होगाजिसने चाँद तारों सेसामीप्य और नेह के धागे जोड़े होंगे !यथार्थ के कठोर धरातल पर सब शुष्क है...मात्र दूरियां ही तो जीवंत हैं... !!ऐसी हताशा मेंचुपके सेकोमलता के एक प्रतिमान कास्पर्श महसूस किया हिय ने...जैसे कह रही हो वह कोमलता--जीवन है...अनुभव सा आंकती चलो...चलते चलते अपने ही भीतर झांकती चलो...तुम्हें तुम्हारे सारे जवाब मिल जायेंगे...हताश निराश, विराट नीलेपन से ही, अनुभूतियों के मोती झिलमिलायेंगे...उन्हें चुनकर पिरो लेना...जीवन का दामन थामे...फिर "जीवन"ही हो लेना... !!