Quantcast
Channel: अनुशील
Viewing all articles
Browse latest Browse all 670

कि "जीवन"जीवन ही नहीं था... !

$
0
0



सबसे ज्यादा हताश थी जब...


दुनिया में कहीं कुछ भी 

ठीक नहीं लग रहा था तब.


खुद से ही बेइंतहा नाराज़गी थी


उस क्षण-


जीवन से अधिक त्याज्य
जैसे कुछ भी और नहीं था...


कि "जीवन"जीवन ही नहीं था... !


इतने अँधेरे कभी नहीं देखे थे
हम तो चाँद तारों को आसमान का सच मानते थे


किसे पता था कि
धरा से चाँद तारों का सामीप्य
सब कोरी कल्पना हैं...


दूरी के ऐसे मानक प्रतिस्थापित हैं
कि जिसकी गणना, कल्पना भी, अकथनीय है...


ऐसे में
ये हमारा भोलापन ही तो रहा होगा
जिसने चाँद तारों से
सामीप्य और नेह के धागे जोड़े होंगे !


यथार्थ  के कठोर धरातल पर सब शुष्क है...
मात्र दूरियां ही तो जीवंत हैं... !!


ऐसी हताशा में
चुपके से
कोमलता के एक प्रतिमान का
स्पर्श महसूस किया हिय ने...


जैसे कह रही हो वह कोमलता--


जीवन है...
अनुभव सा आंकती चलो...


चलते चलते अपने ही भीतर झांकती चलो...


तुम्हें
तुम्हारे सारे जवाब
मिल जायेंगे...
हताश निराश,
विराट नीलेपन से ही,
अनुभूतियों के मोती झिलमिलायेंगे...


उन्हें  चुनकर पिरो लेना...


जीवन का दामन थामे...
फिर "जीवन"ही हो लेना... !!


Viewing all articles
Browse latest Browse all 670


<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>