शोर और मौन का
जाने ये कैसा गणित...
रुक गया हो धमनियों में जैसे
बहते हुए शोणित...
कुछ तो टूटा है ऐसा
जिसका शोर मौन में ध्वनित है...
बिखरे काँच के टुकड़ों में
टूटी हुई आस प्रतिविम्बित है...
चुनते चुनते बिखरन
फिर टूटना है...
क्या शिकायत किसी से
इन राहों में खुद पर ही है खीझना, खुद से ही रूठना है... !!