$ 0 0 एक खिड़की हो...वहां से झांकतासमूचा आकाश हो...उस पारपूरी दुनिया होऔरइस दुनिया में हों हमउस दुनिया सेजुड़े हुए...आकाश की ओर दृष्टि कियेज़मीं की ओर मुड़े हुए... !!चाहे वो कमरा होया हो मन का वितान...और कुछ हो न हो वहांएक खिड़कीअकाट्य रूप से हो विद्यमान... जहाँ से देखते हुए विस्तार,भूल जायें हम,स्वयं अपना भी नाम... !!कि...अपने छोटे सेअस्तित्व में,वोविराट की ओर खुलतीसम्भावना का नाम है...कमरा हो या हो मनखिड़की की उपस्थिति ही दिशा का संज्ञान है... !!