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हर युग के प्रारब्ध में...!

जब तक रहते हैं हम तब तक इमारत सांस लेती है और त्यक्त होते ही मानों इमारत का भी जीवन समाप्त होने लगता है... और विरानगी समाते समाते धीरे धीरे वह बन जाता है खंडहर!
हर युग की यही कहानी है, हर इमारत ढ़हती है..., यादों के महल भी समय के साथ खंडहर बन जाते हैं..., हमारा शरीर भी तो एक रोज़ कभी बुलंद रही छवि का अवशेष मात्र ही रह जाता है...!
चिरंतनके लिए कविता लिखनी थी..., विषय था खंडहर; इस पर सोचते हुए मन बहुत विचलित हुआ, सन्नाटों को सुनने के प्रयास में लिख गयी कविता आज यहाँ भी सहेज लेते हैं...!
अपने सुन्दर अंक में सारगर्भित रचनाओं के बीच मेरे प्रयास को भी स्थान देने के लिए चिरंतनका आभार!


ऊंची अट्टालिकाओं की भीड़ में
ले रहे हैं सांस,
ख़ामोश खंडहर...

अपनी ख़ामोशी में,
सहेजे हुए
वक़्त की कितनी ही करवटें
कितने ही भूले बिसरे किस्से
बीत चुके
कितने ही पहर...

सन्नाटे में गूंजती
किसी सदी की हंसी
जीर्ण-शीर्ण प्राचीरों के
मौन में फंसी,
इस सदी के द्वार पर
दे दस्तक
दिखलाती है-
वक़्त कैसे अपने स्वभाव के अधीन हो
ढ़ाता है कहर...

हमेशा ये अट्टालिकाएं भी नहीं रहेंगी
निर्विकार, निर्विघ्न चल रही है प्रतिक्षण
परिवर्तन की लहर...

हर युग के प्रारब्ध में है लिखा हुआ एक खंडहर!

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