ज़िन्दगी अजीब राहों से गुजरती है... इतनी जल्दी सबकुछ बीत रहा है... किनारे छूटते हुए से दिख रहे हैं... मन बेहद उदास है... जाने कैसी स्थितियां परिस्थितियां बनी हैं कि शब्द शब्द को तरस गया है मन... आवाज़ तक पहुंचना स्वप्न हो गया है... सभी किनारे हमसे रूठे हुए हैं और मझधार में जो एक तिनका है वह भी हमसे दूर भागे जा रहा है...
इतना अकेला... इतना असहाय कभी नहीं महसूस किया हो शायद... या फिर ये भी एक दोहराव ही था उस सबका जो बीत चुका है... कितनी ही बार खुद को इतना अकेला पाया है जैसे कि पूरे संसार में अकेले बच गए हों... कोई न हो जिससे हृदय की पीर कही जा सके... कोई न हो जो पोंछे आंसू... हो भी कैसे... जो भी हैं वे तो रुलाने वालों में शामिल हैं...; पर अनुभव कहता है... बीत जायेगा यह भी वक़्त... ये भयावह अकेलापन मेरा भ्रम ही हो शायद...! भ्रम और सत्य को विभाजित करती सीमारेखा जाने कहाँ है... लेकिन एक सत्य तो यह भी है कि हम सब अकेले हैं... ये साथ... सपने... प्रेम... सब भ्रम है..., अपना है... तो बस, ये एहसास कि अकेले ही आना हुआ है... अकेले ही जाना भी होगा और ये मध्य में केवल मोह ममत्व और भ्रम के फेरे हैं... सिवाय दुःख के जिससे कुछ भी हासिल नहीं होने वाला...!
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जाने क्यूँ ऐसी उदासी है... जाने क्यूँ इतनी उलझनें हैं... जीवन सरल से इतना क्लिष्ट कब हो गया... आँखों का निर्झर रुकता क्यूँ नहीं... दूरियों ने यूँ अपनी जगह बना ली है कि सामीप्य के मानक अब मेरे लिए स्वप्न होते जा रहे हैं...
शायद ये दौर ही ऐसा है... ये बीतता समय सब छीनता जा रहा हो जैसे... "कुछ नहीं बचेगा... सब ध्वस्त हो जायेगा", ऐसी निराशा से जूझ रहा मन जाने क्या लिखे जा रहा है... चीखता हुआ एक मौन है... रोती हुई चेतना है और अकेला मन है...
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लिखने को... पूरे करने को... कितने ही आधे अधूरे ड्राफ्ट्स पड़े हैं... कितनी ही यात्राओं की तस्वीरें पुकार रही हैं अपनी दास्ताँ बयां करवाने को... कलम भी उद्धत है लिखने को... पर जाने कहाँ है हम... कहाँ खोया हुआ है मन... ये आंसू लिखे जा रहे हैं... बेवजह... यूँ ही... जाने क्यूँ...!!!
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...ऐसे ही शायद खुद को समझाते हुए नियंत्रित करना होगा... मन को सकारात्मकता की ओर मोड़ना होगा... कुछ जोड़ना होगा... टूटे हुए कांच को फेंकते हुए संभल कर निकलना होगा... जो चुभ गया है टुकड़ा उसे निकालना होगा... जरा सा उपचार भी जरूरी होगा फिर... हर चोट ठीक हो जाती है... हर घाव भर जाता है... आंसू जो बह जाये तो मन भी शीतल हो जाये यही सोच कर रोये जा रहे हैं...
आसमान में ढेर सारे बादल हैं... धरती पर ढेर सारी बारिश है... भीगते हुए हम हैं और एक हमारा मन है जो फुहारों के सानिध्य में अब आश्वस्त सा दिखाई पड़ रहा है... "सब ठीक हो जायेगा", ये सांत्वना खुद को ही देता हुआ मन, सुबकते हुए... संयत होने की कोशिश में लगा है...
बारिश के बाद वाली धुली धुली सुबह का इंतज़ार... सुखद लम्हों को याद करता मन... समय की विकटता के समक्ष अब तन कर खड़े होने की कोशिश में जरा जरा कामयाब होता प्रतीत होता है... यूँ बकवास बेवजह लिखते हुए एक किताब याद आती है... एक पंक्ति मेरा हाथ थाम लेती है बढ़कर और विराम तक बढ़ते हुए मन आसरा पाता है...
"I give myself a good cry if I need it, but then I concentrate on all good things still in my life..."
--Mitch Albom [Tuesdays with Morrie]
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सच है, हम अकेले नहीं हैं... हवा में तैरती कितनी ही तरंगे हैं जो हमारा संबल बनती हैं... उस इश्वरीय चेतना को नमन... उस शब्दशक्ति को नमन जो पोंछती है आंसू... भीषण नीरवता में जो दीप जलाती है... उस श्रद्धा को नमन... और नमन उस दृष्टि को... जो हम जैसे पर भी अपनी करुणा बरसाती है...
इस वीराने में बजे कोई धुन... पहुँच सके हम तक कोई आवाज़... हमारी आवाज़ दे दस्तक कहीं... ये बेवजह की बातें ले विराम अब कि हम अन्य बिखरे कामों को समेट सकें...!